‘हिंदू’ शब्द को आजकल, और विशेषत: राजनीतिक क्षेत्र में,
एक संकीर्ण अर्थ चिपकाने की कोशिशें जारी हैं|
‘हिंदू’,
अन्य संप्रदायों की भॉंति एक संप्रदाय मात्र है,
ऐसा प्रचारित किया जा रहा है| अत:, जो कोई हिंदू की, हिंदू-हित की, या हिंदू-राष्ट्र की बात करता है,
उसे सांप्रदायिक और अराष्ट्रीय मानने की प्रवृत्ति दिख रही
है|
उसे ‘सेक्युलर’ राजनीति का शत्रु माना जा रहा है|
एक अजीब बात यह है कि जो संप्रदायविशेष का विचार कर अपनी
नीतियॉं और कार्यक्रम बना रहे हैं, उन्हें ‘सेक्युलर’ कहा जा रहा है| और जो सब पंथों को समान समझो, राजनीति और राज्यशासन पंथनिरपेक्ष होना चाहिये,
ऐसा कहते हैं, उन्हें सांप्रदायिक कह कर उनकी निंदा की जा रही है|
वैचारिक व्यभिचार का ऐसा विचित्र उदाहरण दुनिया में शायद ही,
और कहीं मिल पायेगा|
‘हिंदू’ होने का अभिमान इस परिप्रेक्ष्य में,
जिनकी १५० वी जयंति, अब अपने देश में मनाई जानेवाली है,
उन स्वामी विवेकानंद के विचार क्या थे,
यह जानना सचमुच उद्बोधक होगा| हमारे सार्वजनिक जीवन की कई भ्रांतियॉं दूर करने में वे
सहायक होंगे|
स्वामीजी कहते हैं, ‘‘हिंदू होने का मुझे अभिमान है|
मैं आप का देशवासी हूँ इसका मुझे गर्व है|
(Complete
works of Vivekanand. vol-3, page 381) हिंदू शब्द सुनते ही, शक्ति का उत्साहवर्धक प्रवाह आपके अंदर जागृत होगा तभी आप
सच्चे अर्थ में हिंदू कहने लायक बनते हैं| आपके समाज के लोगों में आपको अनेक कमियॉं देखने को मिलेंगी,
किन्तु उनकी रगों में जो हिंदू रक्त है,
उस पर ध्यान केन्द्रित करो| गुरु गोविंदसिंह के समान बनो| हिंदू कहते ही सब संकीर्ण झगडे समाप्त होंगे|
और जो जो हिंदू है, उसके प्रति सघन प्रेम आपके अंत:करण में उमड पडेगा|’’
(तत्रैव पृ. ३७९)