प्रतिदिन सूर्यनमस्कार करने से आयु, वीर्य, बल, प्रज्ञा तथा तेज की प्राप्ति होती है। सामूहिक सूर्यनमस्कारों से राष्ट्रीय चारित्र्य का निर्माण होता है।विविकानंद सार्ध शति वर्ष के अवसर पर सोमवार १८ फरवरी को पुरे देश में २ करोड विद्यार्थी सामूहिक सूर्यनमस्कार में संमिलीत हुए । |
- मुकुल कानिटकर
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‘भारत’ शब्द का ही अर्थ है ‘प्रकाश की उपासना करनेवाला।’ भा अर्थात ‘प्रकाश’, रत अर्थात ‘में व्यस्त’। प्रकाश की उपासना भारतीय संस्कृति का वैज्ञानिक आधार है। हमारी सारी परम्पराएं वैज्ञानिक हैं। उसका आधार प्राण विज्ञान है। मध्यकाल के संघर्ष के कारण इस प्राणविद्या का ज्ञान समाज में नहीं रहा। किन्तु हमें पता नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि वह विज्ञान ही लुप्त हो गया। चाहे आयुर्वेद हो, ज्योतिष विद्या अथवा वास्तुशास्त्र सबका मूल आधार प्राणविद्या ही है। प्राण के प्रवाह को ही देखकर वास्तुशास्त्र की दिशा तय होती है। प्राण प्रवाह की गणना ही ज्योतिष के मुहूर्तों का भाव तय करती है। जगत में प्राण का मूल स्रोत सूर्य है। इस कारण सूर्य की उपासना का हिन्दू जीवन में बड़ा महत्व है। सूर्य की स्तुति, उसका पूजन और जल द्वारा उसको अध्र्य प्रदान करना यह उपासना के सामान्य आधार रहे हैं। जनजातियों में भी सूर्य की उपासना का महत्व है। सूर्य की उपासना की सबसे वैज्ञानिक विधि योगविद्या द्वारा विकसित की गई ‘सूर्यनमस्कार’ है। सूर्यनमस्कार सूर्य की उपासना का सम्पूर्ण माध्यम है। साधरणत: पूजा में कुछ उपचार एवं भाव ही प्रयोग में लाए जाते हैं, सूर्यनमस्कार पूर्ण व्यक्तित्व से ही सूर्य की पूजा है। शरीर, मन, बुद्धि को लेकर प्राणशक्ति के द्वारा सूर्य के यजन की विधि है- ‘सूर्यनमस्कार’! विभिन्न आसनों के माध्यम से शरीर का पूर्ण संचालन करते हुए साष्टांग प्रणिपात किया जाता है। साथ ही मन से सूर्य का ध्यान व बुद्धि में वही प्रखर विचार। सूर्यनमस्कार की चक्रीय विधि है ही ऐसी की उस समय कोई और विचार मन में आ ही नहीं सकता। पूरा व्यक्तित्व सूर्य की ऊर्जा पर एकत्र हो जाता है। प्राण का प्रवाह पूरे शरीर में सुव्यवस्थित प्रवाहित होता है। सारी नाड़ियों में ही चालना आती है। अधिकतर विकार प्राण के कुप्रवाह, अप्रवाह या अतिप्रवाह के कारण होते हैं। आयुर्वेद इसे कुजीर्ण, अजीर्ण व अतिजीर्ण की संज्ञा देता है। सूर्यनमस्कार से प्राण का सम्यक व समुचित प्रवहण हो जाता है। इस सुजीर्ण के चलते सकारात्मक स्वास्थ्य की प्राप्ति हो जाती है। अत: सूर्यनमस्कार के नियमित अभ्यास से सभी रोगों से रक्षा हो जाती है। जीवन बलपूर्वक, प्रसन्नता से दीर्घकाल तक सार्थक चल सकता है।
सूर्यनमस्कार व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का सहज सुलभ साधन है। अत्यंत कम समय में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, बौद्धिक व आध्यात्मिक विकास का इससे ब‹ढकर कोई अन्य एकात्म साधन नहीं है। शरीर का स्थायी सौष्ठव सूर्यनमस्कार से ही मिलता है। अन्य व्यायाम तात्कालिक परिणाम दे सकते हैं किन्तु स्थायी परिवर्तन का माध्यम योगिक सूर्यनमस्कार ही है। श्वास पर ध्यान देकर किए गए सूर्यनमस्कार से मन को एकाग्र करने की क्षमता का अद्भुत विकास होता है। विद्यार्थियों को नियमित सूर्यनमस्कार का अभ्यास अनिवार्य रूप से करना चाहिए। इससे अध्ययन के लिए अत्यावश्यक एकाग्रता के साथ ही स्मणरशक्ति का भी चमत्कारिक विकास होता है। ऊर्जा के संतुलन के कारण भावनाएं भी संतुलित हो जाती हैं।
सूर्यनमस्कार में प्रयुक्त मन्त्रों का भी अपना महत्व है। मन्त्र बहुआयामी प्रभाव डालते हैं। उच्च स्वर में स्पष्ट मन्त्रोच्चारण से उत्पन्न ध्वनि केस्पन्दन शरीर, मन, बुद्धि तीनों को ही शुद्ध करते हैं। मन्त्रों में सूर्य के जो 12 नाम लिए जाते हैं, उनमें से प्रत्येक नाम का विशिष्ट परिणाम है। व्यक्तित्व के आवश्यक अनेक गुणों का विकास इन मन्त्रों के उच्चारण से होता है। सूर्य का एक नाम सविता है। सविता बुद्धि के देवता है। सूर्यनमस्कार से भ्रम, वितर्क व विपर्याय से परे सत्य को देखने की प्रखर बुद्धि प्राप्त होती है। नियमित सूर्यनमस्कार करनेवाला छात्र संकल्पना को सुस्पष्टता से समझ लेता है। अत: उसका अध्ययन केवल परीक्षा के लिए संग्रहित जानकारी तक सीमित न होकर जीवनोपयोगी ज्ञान का साधन बन जाता है। कम समय में सदा के लिए पढ़ाई हो जाती है। बार-बार रटने की मजबुरी में समय व्यर्थ नहीं गवांना पड़ता।
वैसे तो भारत में अनादिकाल से ही सूर्यनमस्कार प्रचलित रहे हैं। किन्तु अनेक विषयों की तरह ही संघर्षकाल में इसका समाज को विस्मरण हो गया। आधुनिक काल में सूर्यनमस्कार को समाज में प्रचलित करने का श्रेय छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी को जाता है। उन्होंने बलोपासना का सुगठित तन्त्र विकसित किया। गांव-गांव में मारुति (हनुमान) के मंदिर स्थापित किए। उनके सम्मुख युवाओं को एकत्रित कर सामूहिक सूर्यनमस्कार का अनुष्ठान किया। इन वीर सूर्योपासकों में से ही शिवाजी की अजेय सेना का निर्माण हुआ। हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना, मुगल शासन का अंत तथा पूरे देश में मराठों के शासन के चमत्कार का मूल समर्थ रामदास द्वारा प्रचलित सूर्यनमस्कार की संगठित ऊर्जा में ही था।
६ वर्ष की आयु से ऊपर के सभी स्त्री-पुरुष सूर्यनमस्कार का नियमित अभ्यास कर सकते हैं। वर्तमान में भारत में सूर्यनमस्कार की १०-१२ पद्धतियां प्रचलित हैं। आसनों के क्रम अंकों में कुछ थोड़े-थोड़े भेद से आचार्यों ने अपनी-अपनी पद्धतियों का विकास किया है। समर्थ रामदास द्वारा प्रचलित १० अंकों की विधि सर्वाधिक अभ्यास में है। तोलासन से सीधे साष्टांग प्रणिपात में जाने के कारण इसमें बजरंगी दण्ड लगता है। यह बलवद्र्धन के लिए सर्वोत्तम है। बाल, किशोर व युवाओं को इस विधि से ही अधिक लाभ प्राप्त होता है। योगाभ्यासी मण्डल के जनार्दन स्वामी द्वारा प्रचारित १२ अंकों की विधि में दो बार शशांकासन किया जाता है, साष्टांग प्रणिपात से पूर्व तथा पर्वतासन के बाद। अधिक आयु के लोगों के लिए यह सुकर होने के साथ ही नाभी में प्राण को संग्रहित करने में भी सहायक है।
वैसे तो १२ मंत्रों के साथ १२ चक्र सूर्यनमस्कार अपनेआप में पूर्ण है। सूर्य की इस उपासना को ईश्वर प्राप्ति का अधिष्ठान प्रदान करने के लिए समर्थ रामदास ने १३ मन्त्र नारायण के प्रति जोड़ दिया- ‘श्री सवितृ सूर्यनारायणाय नम:’ यह पूरी प्रक्रिया को पूजा बना देता है। इसी भाव से सूर्यनमस्कार का मन्त्र आता है -
ध्येय: सदा सवितृ-मण्डल-मध्यवर्ती
नारायण: सरसिजासन-सन्निविष्ट:।
केयूरवान् मकर-कुण्डलवान् किरीटि
हारी हिरण्यमय वपुर्धृत शंख-चक्र:।।
सूर्य जिनके मध्य स्थान में है ऐसे स्वर्णीम कांतिवाले परमेश्वर नारायण की यह स्तुति सूर्यनमस्कार के आरम्भ में की जाती है। हमारे सूर्यनमस्कार उस परमशक्ति तक पहुंचे यह भाव है।
प्रतिदिन नियम से प्रात: अथवा सायं सूर्यनमस्कार करने चाहिए। १३ चक्रों से प्रारम्भ कर सकते हैं किन्तु बाल, युवा, किशोर और युवा वर्ग के भाई-बहनों को धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ानी चाहिए। समर्थ रामदास स्वयं प्रतिदिन १२०० सूर्यनमस्कार करते थे। वर्तमान युग में भी यह सम्भव है। कन्याकुमारी में ली गई प्रतियोगिता में दो कार्यकर्ताओं ने ३ घण्टे में १२०१ सूर्यनमस्कार किए थे। इतने तक ना भी जाए तब भी १०८ सूर्यनमस्कार तो हर युवा को करने ही चाहिए। इसमें २५ से ३० मिनट का समय लगता है और पूर्ण व्यक्तित्व का व्यायाम हो जाता है। अजेय आत्मविश्वास, सुशीलवान, विनम्रता, प्रगल्भ मेधा, संवेदनशील हृदय इन सभी गुणों का एक साथ विकास होता है।
सूर्यनमस्कार के सामूहिक अभ्यास का भी बड़ा महत्व है। अकेले किए सूर्यनमस्कार से तो अपने प्रयत्न का ही फल मिलेगा। सामूहिक अभ्यास से प्रत्येक को सभी की साधना का सुफल प्राप्त होगा। अत: जितने साधक साथ होंगे उतने गुणा सबको पुण्य प्राप्ति होगी। वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियों का निदान भी सामूहिक अभ्यास में ही है। आज माँ भारती को केवल व्यक्तित्व ही नहीं अपितु राष्ट्रीय चारित्र्य के विकास की आवश्यकता है। सामूहिक सूर्यनमस्कार के अभ्यास से इस संगठित राष्ट्रीय चारित्र्य का विकास होगा।
सूर्यनमस्कार के अंत में फलश्रुति का पाठ करते हैं-
आदित्यस्य नमस्कारान् य कुर्वन्ति दिने दिने।
आयुप्रज्ञा बलं वीर्यं, तेजस् तेषां च जायते।।
जो सूर्यनमस्कार का प्रतिदिन अभ्यास करते हैं, उनको आयु, वीर्य, बल, प्रज्ञा तथा तेज की प्राप्ति होती है। आइए, हम सामूहिक अभ्यास से मां भारती को यह सब अर्पित करें ताकि वह विश्वगुरु पद की नियति को प्राप्त कर सके।
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