क्या राष्ट्रीय शक्तियां एकजुट होंगी?
देवेन्द्र स्वरूप
|
वर्ग-संघर्ष के द्वारा शोषणविहीन-समतामूलक
समाज रचना की विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद पूरे विश्व में असफल सिद्ध
हो चुका है। अब जो कुछ शेष बचा है वह है विचारधारा के आवरण में सत्ता पर
काबिज होने के लिए लालायित कुछ संगठित गिरोह। अब उनके लिए विचारधारा का
अर्थ कुछ घिसे-पिटे शब्दों और प्रतीकों का मुखौटा लगाकर सत्ता-प्राप्ति की
निर्लज्ज साधना मात्र रह गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण चीन के रूप में हमारे
सामने है। यह खुली सचाई है कि चीन अब पूरी तरह से पूंजीवाद, बाजारवाद और
उपनिवेशवाद के रास्ते पर चल रहा है। उसकी एकमात्र आकांक्षा आर्थिक और
कूटनीतिक क्षेत्र में अमरीका को पीछे छोड़कर विश्व की सबसे बड़ी शक्ति के
रूप में उभरना है। इसके लिए चीन ने अधिनायकवाद का रास्ता अपनाया है। वहां न
बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली है, न मीडिया को विचार अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता। वहां सत्ता-सूत्र किसी एक व्यक्ति या छोटे से गिरोह के हाथों
में केन्द्रित हैं। किन्तु अपनी इस एकमुखी अधिनायकवादी व्यवस्था के मुखौटे
के रूप में चीन अभी भी स्वयं को कम्युनिस्ट कहता है। चीन सत्तारूढ़ दल को
कम्युनिस्ट पार्टी नाम से पुकारता है। कम्युनिस्ट पार्टी की पुरानी
संगठनात्मक संरचना की शब्दावली को दोहराता है, जैसे- केन्द्रीय समिति, उसके
ऊपर 25 सदस्यों का एक पोलित ब्यूरो, इसके ऊपर 9 सदस्यों की एक कोर या
स्थायी समिति और उसका सूत्रधार एक महासचिव, जो चीन की सरकार का राष्ट्रपति
भी होता है। सत्ता की पूरी ताकत इस एक व्यक्ति में ही केन्द्रित होती है।